Apr 25, 2013

GOPI CHAND BHAGAT





भगत गोपी चन्द जी की संक्षिप्त जीवनी
सूर्य जब उदय होता है तो जीवन में संचार पैदा करता है। सभी जीव निद्रा से जाग जाते हैं और अपने जीवन के उद्देश्य की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील हो जाते हैं। मुरझाए हुए फूल और पौधे भी सूर्य की किरणों से खिल उठते हैं। लेकिन ये भी सत्य है कि कई इंसान और दूसरे जीव पौधे इस सूर्य की रोशनी का पूरा लाभ नहीं उठा पाते।
ऐसा ही एक सूर्य, गाँव पोथ जिला सियालकोट जो अब पाकिस्तान में है, में पैदा हुए जिनका नाम भगत गोपी चन्द था। ऐसे व्यक्ति कभी-कभी ही जन्म लेते हैं जिनके दिल में अपने समाज के लिए सोचने और कुछ कर गुजरने की तीव्र भावना होती है। भगवत् गीता में एक श्लोक है जिसका अर्थ है किभगवान किसी रुप में धरती पर आते हैं ताकि बुराईयों या कमियों को दूर कर अच्छाई को स्थापित कर सकें यहाँ हम भगत गोपी चन्द जी के बारे में ये तो नहीं कह सकते लेकिन इतना तो शायद कह सकते हैं कि भगत गोपी चन्द जी को भगवान ने एक साधारण व्यक्ति के रूप में भेजा ताकि वे अपने भगत (मेघ) समाज की भलाई के लिए कुछ कर सकें।
भगत गोपी चन्द जी एक साधारण परिवार में पैदा हुए। उन्होंने शिक्षा ग्रहण की और बाद में आर्मी में भर्ती हो गए। आर्मी में उन्होंने कुछ ऐसे बहादुरी के काम किए जिसके कारण उन्हें प्रोमोशन मिली और एक आर्मी आफिसर के पद पर नियुक्त कर दिए गए। ये प्रोमोशन का कारण उनका द्वितीय महायुद्ध के दौरान बहादुरी के लिए किया गया था। द्वितीय महायुद्ध के दौरान इनकी कम्पनी असम के किसी पहाड़ी इलाके पर तैनात थी। एक रात भारी बारिश और तूफान से बहुत तबाही हो रही थी ओर सर्दी पड़ रही थी तो अंग्रेज कप्तान ने पहाड़ से नीचे बेस कैम्प पर लौटने के लिए निर्देश दे दिए। भगत गोपी चन्द ने निर्देश मानने से मना कर दिया क्योंकि वहाँ कम्पनी के पास बहुत गोला बारुद था. आर्मी के कानून अनुसार गोला बारुद छोड़कर जाना अनुचित होता है। अंग्रेज कैप्टन बाकी के आर्मी के जवानों को लेकर नीचे बेस कैम्प में गया और अंग्रेज कर्नल से भगत गोपी चन्द जी शिकायत करके कोर्ट मार्शल करने के लिए प्रार्थना की। लेकिन अंग्रेज कर्नल ने कहा कि वे दूसरे दिन स्वयं पहाड़ पर जाएँगे और मुआयना करेंगे। दूसरे दिन अंग्रेज कर्नल, अंग्रेज कप्तान कम्पनी सहित पहाड़ की चोटी पर आए तो देखा कि भगत गोपी चन्द अधमरे से पड़े हुए हैं और रंग सफेद हुआ पड़ा है। अंग्रेज कर्नल ने महसूस कि भगत गोपी चन्द ने अपनी डयूटी पूरी निष्ठा से निभाई है इसलिए उनको बेस कैम्प में लाकर उनका इलाज किया गया। अंग्रेज कर्नल ने अंग्रेज कप्तान को तो इंगलैंड वापिस भिजवा दिया और भगत गोपी चन्द जी की आफिसर पद पर पदोन्नित कर दी। लोग उनको एक सम्मानित व्यक्ति के रुप में जानने लगे। उस समय अंग्रेजों का राज था और भगत (मेघ) समाज अशिक्षित और अत्यन्त पिछड़ा हुआ था। भगत गोपी चन्द जी शिक्षा के महत्व को जानते थे। इसलिए वे चाहते थे कि भगत समाज के लोग अधिक से अधिक शिक्षा ग्रहण करें और नौकरियाँ प्रतिष्ठित व्यवसाय अपनाएँ और अपने जीवन स्तर को ऊँचा करें क्योंकि ये माना जाता है कि समाज में सम्मान प्राप्त करने के दो मुख्य साधन हैं - शिक्षा और धन। इसलिए उन्होंने भगत समाज के लोगों को उत्साहित किया कि कम से कम वे अपने बच्चों को शिक्षा ग्रहण करने के लिए स्कूल अवश्य भेजें। उस समय आर्य समाज शिक्षा के क्षेत्र में काफी काम कर रहा था। शिक्षा के विस्तार के लिए आर्य समाज ने छोटे बड़े स्कूल स्थापित किए। भगत गोपी चन्द जी ने आर्य समाज के अग्रणी लोगों से बात की और भगत समाज के बच्चों को आर्य समाज के स्कूलों में मुफ्त शिक्षा देने के लिए आग्रह किया जिसको उन्होंने स्वीकार कर लिया। इस तरह भगत समाज के बच्चे आर्य समाज द्वारा स्थापित स्कूलों में मुफ्त शिक्षा किताबें ग्रहण कर सकते थे। इसके अतिरिक्त आर्य समाज के मंदिरों में भी प्रबन्ध करवाया ताकि जो बच्चे दूर स्थित स्कूलों में नहीं जा सकते थे वे उन आर्य समाज मंदिरों में शिक्षा ग्रहण कर लें। अफसोस की बात ये है कि इस आह्वान का समाज के लोगों पर अधिक असर नहीं हुआ। लेकिन इस आहवान का स्थिति के अनुसार कुछ असर हुआ और गिने-चुने लोगों ने अपने बच्चों को स्कूल भेजना शुरू किया। भगत गोपी चन्द जी का यह मानना था कि शिक्षा से बिरादरी ना केवल प्रगति कर सकती है बल्कि अपनी सोच और ज्ञान का विस्तार भी कर सकती है।
हम परिवार वाले भगत गोपी चन्द जी को बाऊ जी कह कर सम्बोधित करते थे और बिरादरी के लोग सम्मान से बाऊ गोपी चन्द कहते थे। बाऊ जी ने सियालकोट छावनी के पास अपने परिवार के लिए एक हवेली बनानी शुरु की लेकिन वहाँ के एक मुसलमान जो एक क्षेत्र का प्रभावशाली व्यक्ति था उसने हवेली बनवाने में कानूनी रुकावटें खड़ी कर दी। क्योंकि उस मुसलमान की उस एरिया में अपनी एक बड़ी हवेली थी और वह नहीं चाहता था कि कोई दूसरा उसके मुकाबले की हवेली खड़ी कर सके। बाऊ जी एक स्वाभिमानी व्यक्ति थे और वे ये दिखाना चाहते थे कि भगत बिरादरी के लोग भी किसी से कम नहीं हैं और इसलिए उन्होंने गाँव पोथ में 14 कमरे वाली हवेली बनवाई। इस हवेली के आगे वाले चार कमरे अलग छोड़ दिए ताकि बिरादरी के लोग जो वहाँ किसी काम के लिए या उनको मिलने के लिए आएँ तो वे वहाँ जितने दिन चाहें ठहर सकें। वहाँ ठहरने वाले लोगों का खाने का भी पूरा प्रबन्ध किया जाता था। पाकिस्तान बनने के बाद उस हवेली में अब एक सरकारी हायर सैकेण्डरी स्कूल चल रहा है।
उस समय भगत बिरादरी में अनपढ़ता के कारण इन लोगों को नौकरियाँ नहीं मिलती थी। आर्मी ही एक ऐसा स्रोत था जहाँ अनपढ़ भी भर्ती हो सकते थे। इसलिए बाऊ जी ने सोचा कि भगत बिरादरी के लोगों को आर्मी में भर्ती करवाया जाए। इस उद्देश्य से वे एक शिष्ठ मंडल (डेलिगेशन) लेकर सियालकोट कैंट में आर्मी के अफसरों से मिले और भगत बिरादरी के लोगों को आर्मी में भर्ती करने के लिए प्रार्थना की और लिखित रूप में याचिका भी दी, साथ में तर्क दिए कि ये एक बहादुर कौम है और इतिहासिक तौर पर ये एक लड़ाकू कौम है। बाऊ जी के तर्कों से अंग्रेज आफिसर प्रभावित हुए और इस बिरादरी के लोगों को आर्मी में भर्ती करने के लिए राजी हो गए। उसके बाद बिरादरी के लोगों को गाँव-गाँव संदेश भेजकर बताया गया कि वे अपने जवान बच्चों को आर्मी में भर्ती करवाने के लिए कैंट भेजें। लेकिन बिरादरी के लोग अपने जवान बच्चों को आमी में भर्ती कराने के लिए तैयार नहीं हुए। इन लोगों में यह विचार घर कर गया था कि आर्मी में बच्चों को भेजने का मतलब है कि बच्चों को हमेशा के लिए खो देना। बाऊ जी ने लोगों को काफी समझाया लेकिन लोग कुछ भी समझने को तैयार नहीं थे। जिसका नतीजा यह हुआ कि भगत बिरादरी के लोग आर्मी में भर्ती होने से भी वंचित रह गए।
1947 में जब देश का विभाजन हुआ तो बहुत मार-काट शुरु हो गई। मुसलमानों ने पाकिस्तान में हिन्दुओं और सिखों के घरों को लूटना ओर उनका कत्लेआम शुरु कर दिया। बाऊ जी ने मुसलमानों के लीडरों से बातचीत की ताकि वे भगत बिरादरी के लोगों को ना मारें लेकिन इस आग्रह का मुसलमानों पर कोई असर नहीं हुआ। इसके बाद बाऊ जी ने भगत बिरादरी के लोगों को बचाकर भारत लाने के प्रयास शुरू कर दिए। सबसे पहले एक रेलगाड़ी का इन्तजाम करवाया गया। इस काम के लिए जवाहरलाल नेहरु की बहन श्रीमती रामेश्वरी नेहरू ने बाऊ जी को काफी सहयोग दिया। उसके बाद गाँव-गाँव संदेश भेजकर भगत बिरादरी के लोगों को भारत जाने के लिए तैयार रहने के लिए कहा गया। इस काम के लिए बाऊ जी ने आर्मी का पूरा सहयोग लिया। रेलगाड़ी की व्यवस्था के निर्धारित दिन के एक दिन पहले फिर सभी गाँवों में संदेश भेजे गए कि वे सियालकोट रेलवे स्टेशन पर पहुंच जाएँ। इस काम के लिए बाऊ जी ने अपने छोटे भाई भगत रामचन्द की भी डयूटी लगाई कि वे तीन गाँव में जाकर लोगों को रेलवे स्टेशन पहुंचने के लिए संदेश देवें। आखिरी गाँव में संदेश देकर जब भगत रामचन्द घर वापिस लौट रहे थे तो कुछ मुसलमानों ने उनका पीछा किया। भगत रामचन्द अपनी जान बचाने के लिए खूब भागे लेकिन वे गाँव में घूम-घूम कर पहले ही थके हुए थे। इसलिए वे अधिक नहीं भाग सके और मुसलमानों ने बरछे से उनका कत्ल कर दिया।
ये बात एक चश्मदीद ने बाऊ जी को बताई जिसे सुनकर बाऊ जी बहुत विचलित हो गए। लेकिन अपने प्रयासों में कमी नहीं आने दी। निर्धारित दिन पर बाऊ जी स्वयं मिलिटरी के ट्रकों द्वारा बिरादरी के लोगों को लेने के लिए सुबह-सुबह गाँव-गाँव निकल पड़े। एक गाँव में कुछ लोगों को ट्रक में बिठाया तब उन्होंने देखा कि एक घर से कोई भी नहीं निकला, घर बिल्कुल सुनसान-सा था तो बाऊ जी ने स्वयं घर के अंदर जाकर आवाज दी। फिर भी कोई नहीं निकला। इस पर बाऊ जी ने आवाज दी कि मैं भगत गोपी चन्द हूँ और अगर कोई घर के अंदर है तो वह बाहर जाए क्योंकि मैं स्वयं लेने आया हूँ। तब एक व्यक्ति जो तूड़ी (पुआल) में छिपा हुआ था बाऊ जी का नाम सुनते ही तूड़ी से बाहर निकल आया। उसने बताया कि उसके परिवार के बाकी सदस्यों को मुसलमानों ने मार दिया है। इस तरह बाऊ जी ने बिरादरी के लोगों को आर्मी के संरक्षण में ट्रकों में गाँव-गाँव से लाकर रेलगाड़ी में बिठाया। बताया जाता है कि रेलगाड़ी रास्ते के कुछ स्टेशनों पर भी रुकी, रेलगाड़ी को रुका देखकर मुसलमानों के जत्थे मार-काट करने के लिए जैसे ही रेलगाड़ी के पास आते तो आर्मी के जवान उनको रेलगाड़ी के पास फटकने भी नहीं देते थे। लेकिन गाड़ी के अंदर लोग सहमें और डरे हुए बैठे थे। इस तरह उस गाड़ी को सुरक्षित भारत की सीमा में लाया गया। भारत की सीमा में आते ही रेलगाड़ी में बैठे लोगों ने 'बाऊ गोपी चन्द जिन्दाबाद' के नारे लगाने शुरु कर दिए। लोगों को कैम्प में बसाया गया। पहली गाड़ी में बाऊ जी ने अपने परिवार को पाकिस्तान से नहीं लाए। वे दोबारा पाकिस्तान गए और अपने परिवार और बाकी के बचे हुए बिरादरी के लोगों को रेलगाड़ी द्वारा सुरक्षित भारत ले आए और उनको भी कैम्पों में बसाया। श्रीमती रामेशवरी नेहरू ने बाऊ जी को शहर में किसी अच्छे मकान में परिवार सहित बसने के लिए कहा लेकिन बाऊ जी ने यह सुझाव ठुकरा दिया और कहा कि उनका परिवार भी बिरादरी के लोगों के साथ ही रहेगा जब तक सभी लोगों को रहने के लिए अच्छे मकान आबंटित नहीं हो जाते। टैंटो के बाद लोगों को बैरकों में स्थानान्तरण किया। बाऊ जी के साथ तो अच्छे कार्यकर्ता थे - भगत बड्ढामल और भगत छज्जूराम। भगत बुड्ढामल को भार्गव कैम्प में रहने और वहाँ के लोगों की समस्या सुलझाने के लिए डयूटी लगाई और भगत छज्जूराम को जम्मू में रहने और वहाँ के लोगों की समस्याएँ दूर करने के लिए ड्यूटी लगाई। स्वयं गाँधी कैम्प में रहकर वहाँ के लोगों की समस्याओं का निवारण करने लगे। अब बाऊ जी ने बिरादरी के लोगों के लिए नौकरियाँ दिलवाने के लिए प्रयास करने शुरू कर दिए। बिरादरी के अधिकतर लोग या तो बिल्कुल अनपढ़ या बहुत कम पढ़े लिखे थे इसलिए अच्छी नौकरी मिलना संभव नहीं था। बाऊ जी ने लोगों को समझाया कि अगर वे नौकरियाँ चाहते हैं तो शिक्षा ग्रहण करें और अपने बच्चों को स्कूल अवश्य भेजें। जो जवान बच्चे हैं वे आर्मी में भर्ती हो जाएँ ताकि वे सम्मान का जीवन व्यतीत कर सकें। लेकिन लोगों ने यह लांछन लगा कर मना कर दिया कि बाऊ जी उनके बच्चों को लाम (युद्ध) में भेजना चाहते हैं। जो लोग तैयार हुए उनको सूरानूसी (जालंधर) जहाँ आर्मी का मिलिटरी डिपो था वहाँ नौकरियाँ लगवाईं। जो लोग वहाँ नौकरी करने लगे उनकी आर्थिक दशा में भी सुधार आने लगा।
अब बाऊ जी ने लोगों को खेती-बाड़ी की जमीन दिलवाने के लिए प्रयत्न शुरु कर दिए ताकि ये लोग अपनी जमीन पर स्वयं खेती करें और दूसरों पर निर्भर होने की बजाय आत्मनिर्भर हो जाएँ। इसके लिए बाऊ जी श्रीमती रामेश्वरी नेहरू से मिले और इस स्कीम के बारे में चर्चा की। श्रीमती रामेश्वरी नेहरू ने इसका अनुमोदन कर दिया और कहा कि वह जवाहरलाल नेहरू से भी इस विषय पर बात करेंगी। 1956 के आसपास जवाहरलाल नेहरू जालंधर आए और वहाँ बर्टन पार्क में भरी सभा को सम्बोधन किया। इस सम्बोधन के बाद जवाहरलाल नेहरू सर्कट हाउस में ठहरे। वहाँ श्रीमती रामेश्वरी नेहरू ने बाऊ जी के बारे में और उनकी स्कीम के बारे में जवाहरलाल नेहरू से उनकी चर्चा की और आग्रह किया कि बाऊ जी को सर्कट हाउस में वार्ता के लिए बुलाया जाए जिसको नेहरू जी ने स्वीकार कर लिया। श्रीमती रामेश्वरी नेहरू ने सचिव को कहा कि वे गाँधी कैम्प से भगत गोपी चन्द को बुलवाएँ। आफिसर ने अपने नीचे आफिसर को कहा। उससे नीचे आफिसर ने बुलवाने के लिए दो पुलिस वाले भेज दिए। जब दो पुलिस वाले गाँधी कैम्प आए और उन्होंने बाऊ जी का घर पूछा तो लोग इकट्ठे होकर पुलिस वालों के साथ चलकर घर गए। उस समय लोगों के अंदर पुलिस वालों का बहुत भय होता था। सिपाहियों ने बाऊ जी को बताया कि उनको जवाहरलाल नेहरू ने सर्कट हाउस में बुलवाया है। बाऊ जी बहुत ही स्वाभिमान वाले व्यक्ति थे। पुलिस वालों को देखकर बाऊ जी को बहुत गुस्सा आया और सिपाहियों को कहा कि वे चले जाएँ। तब पुलिस वाले वापिस चले गए और अपने आफिसर को आपबीती बता दी। अंत में ये बात रामेश्वरी नेहरू के पास पहुंची। रामेश्वरी नेहरू ने आफिसरों को डांटा और कहा कि वे स्वयं जाएँ और गाड़ी से भगत गोपीचन्द को नम्रतापूर्वक लेकर आएँ। जब आफिसर गाड़ी लेकर गाँधी कैम्प आए और उन्होंने बाऊ जी को साथ चलने का आग्रह किया तब बाऊ जी ने उन्हें गुस्से में कहा कि क्या मैं अपराधी हूँ कि आपने पुलिस वाले भेज दिए। पुलिस आफिसरों ने क्षमा याचना की तब बाऊ जी उन आफिसरों के साथ जाने के लिए तैयार हो गए। सर्कट हाउस में बाऊ जी पहले रामेश्वरी नेहरू से मिले जो उनको जवाहरलाल नेहरू के पास ले गईं। बाऊ जी ने जवाहरलाल नेहरू को बताया कि उनके लोग बैरकों में रह रहे हैं और इन लोगों को खेतीबाड़ी वाली जमीनें देकर अच्छी तरह से स्थापित किया जाए ताकि वे एक खुशहाल जीवन व्यतीत कर सकें। जवाहरलाल नेहरू ने सुझाव को स्वीकार करते हुए दिल्ली बुलाया। कुछ दिनों बाद बाऊ जी दिल्ली पहुंचे और रामेश्वरी नेहरू के साथ जवाहरलाल नेहरू से मिले। जवाहरलाल नेहरू ने बाऊ जी को अब पुनर्वास के कार्य में सहयोग देने के लिए कहा और उसके लिए ज़रूरी आदेश दे दिए और साथ ही उनको सलाह दी कि वे खेतीबाड़ी के योग्य खाली पड़ी जमीनों का ब्यौरा इकट्ठा करें जहाँ इन लोगों को स्थापित किया जा सके। दूसरे दिन बाऊ जी वापिस जालंधर गए और उन्होंने भगत बुड्ढामल समेत दो कार्यकर्ताओं से चर्चा की। सभी कार्यकर्ताओं ने प्रसन्न होकर इस सुझाव का स्वागत किया। इस संबंध में बाऊ जी ने दिल्ली में संबंधित अलग-अलग सरकारी दफ्तरों में सम्पर्क कर के योजना को कार्यान्वित करने के लिए भाग-दौड़ शुरू कर दी। श्रीमती रामेश्वरी नेहरू ने बाऊ जी को बताया कि उनकी योजना पारित हो गई है जिसके अनुसार राजस्थान में अलवर के आसपास के इलाकों में खेतीबाड़ी की भूमि आबंटित की जा सकती है। बाऊ जी ने अलवर जाकर वहाँ की भूमि का मुयाना किया और पाया कि भूमि खेतीबाड़ी के योग्य है लेकिन लोगों को कुछ मेहनत भी करनी पड़ेगी। दिल्ली वापिस आकर उन्होंने रामेश्वरी नेहरू को अपनी सहमति दे दी और कहा कि आगे की रणनीति तैयार की जाए। रामेश्वरी नेहरू ने बाऊ जी को बताया कि सरकार ने तो योजना पारित कर दी है और अब बाऊ जी को अलवर में ही रहना होगा और वहाँ उनको आफिस की सुविधा भी दी जाएगी। जालन्धर वापिस आकर बाऊ जी ने बिरादरी के लोगों को ये सब बताया और कहा कि अब वे अपनी खेतीबाड़ी वाली भूमि के मालिक हो जाएँगे जिससे वे अपना जीवन स्तर ऊपर उठा सकेंगे और समाज में सम्मानजनक जीवन व्यतीत कर सकेंगे। बाऊ जी को पूरा विश्वास था कि बिरादरी के लोग इस अच्छी योजना को स्वीकार करते हुए अलवर जाने के लिए तैयार हो जाएँगें जिससे कैम्प में मिली जिंदगी से भी छुटकारा मिल जाएगा। तब बाऊ जी ने दो रेलगाड़ियों का इंतज़ाम करवाया ताकि बिरादरी के लोगों को जालन्धर के कैम्पों से अलवर ले जाया जा सके जहाँ लोगों को स्थिापित करने के लिए भूमि आबंटित की जा सके। इस सारी भाग-दौड़ में 6 महीने से अधिक समय लग गया। बाऊ जी ने लोगों से अलवर जाने के लिए तैयार रहने के लिए कहा लेकिन बाऊ जी तब हैरान और दुखी हो गए जब कार्यकर्ताओं ने बताया कि अधिकतर लोग अलवर जाने के लिए तैयार नहीं हैं ओर वो कैंप में ही रहना चाहते हैं। बाऊ जी ने बिरादरी के लोगों को समझाने की कोशिश की लेकिन लोग सामने तो कुछ ना कहें लेकिन पीछे से बाऊ जी की बुराई करने लग पड़े और कैंप छोड़ने से मना करने लगे। बाऊ जी ने बुड्ढामल दूसरे कार्यकर्ताओं को इकट्ठा करके समझाया कि ये उनकी भलाई के लिए है क्योंकि खेतीबाड़ी की भूमि आबंटन के बाद वे आत्मनिर्भर हो जाएँगे और किसी की गुलामी नहीं करनी पड़ेगी। लेकिन लोगों ने किसी भी बात को ना मानने की ठान रखी थी। बिरादरी के लोगों ने अपनी ही भलाई के कार्य को मानना तो दूर उल्टे बाऊ जी पर ही लांछन लगाने शुरू कर दिए। लोगों ने इस तरह के गाने बनाए जिसमें बाऊ जी के विरुद्ध गालियाँ और भद्दे शब्द इस्तेमाल किए गए। शादियों पर या किसी त्योहार पर ये अभद्र गाने गाए जाने लगे। मैं केवल 8 वर्ष का ही था जब बाऊ जी के साथ एक शादी पर गया वहाँ औरतें ढोलकी के साथ गाना गा रही थीं जिसकी आधी पंक्ति ही मैं सुन पाया - “.......... अलवर जान वालेयो बेड़ा रुड़ जाए गोपी दा।" क्योंकि वहाँ बाऊ जी भी उपस्थित थे तो शादी वाले घर के परिवार वालों ने झट से गाना बंद करवा दिया। ऐसा ही एक और अभद्र गाना था "कुन्डा पुर गया टोपी दा, अलवर जान वालेयो बच्चा मर गया गोपी दा"
बाऊ जी दुखी रहने लगे लेकिन हिम्मत नहीं हारी क्योंकि वे समझते थे कि बिरादरी के लोग कितने नासमझ हैं कि उन्हें ये भी नहीं पता कि उनके लिए क्या अच्छा है और क्या बुरा। बाऊ जी ने ठान लिया कि जितने भी लोग तैयार हो जाएँ उनको तो वे अलवर भेज देंगे और जो नहीं जाना चाहते उनकी मर्जी। बाऊ जी ने रामेश्वरी नेहरू से मिलकर रेलगाड़ी का इंतजाम करवाया और जितने भी लोग तैयार हुए उनको रेलगाड़ी द्वारा अलवर में खैरथल, किशनगढ़ और राजस्थान के दूसरे आसपास के इलाकों में भूमि आबंटन कराके स्थापित कर दिया। बाऊ जी अकेले ही अलवर में रहे ताकि बिरादरी के स्थापित किए लोगों की समस्याओं का समाधान कर सकें। अपने परिवार की सुधबुध भूलकर वे अलवर में ही कुछ वर्षों तक रहे। जब उन्होंने देखा कि लोग ठीक तरह से बस गए हैं तो बाऊ जी ने जालन्धर वापिस आने का निर्णय लिया।
कुछ वर्षों के बाद जब बाऊ जी वापिस जलन्धर आए तो उन्होंने अपने परिवार की तरफ ध्यान देना शुरू किया। उन्होंने महसूस किया कि उनके इस व्यस्त कार्यक्रम के कारण वे अपने परिवार पर ध्यान नहीं दे सके जिसके कारण वे अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा भी नहीं दिलवा सके। बाऊ जी बिरादरी के लोगों के व्यवहार से ना केवल निराश थे बल्कि अंदर से भी टूट चुके थे उन्होंने जीवन का सारा समय बिरादरी की भलाई के लिए लगा दिया। अब वो महसूस करने लगे कि बिरादरी के लोगों को समझाना बहुत मुश्किल है। बिरादरी की भलाई के कार्यों में व्यस्त रहने के कारण वे अपने परिवार पर ध्यान नहीं दे सके क्योंकि उन दिनों वे आमतौर पर दिल्ली अलवर में ही रहते थे। परिवार में दो बेटे ओर दो बेटियाँ थी और पिता के दिशा निर्देश और सलाह के अभाव के कारण चारों बच्चों की ठीक से शिक्षा नहीं हो पाई। बड़ा बेटा राजेन्द्र पाल, बेटी शान्ता रानी, बेटी दयावन्ती और सबसे छोटा बेटा महिन्द्र पाल यानि कि मैं उपयुक्त शिक्षा ग्रहण नहीं कर पा रहे थे। बड़ा भाई और दोनों बहनें शादी के लायक थीं और बड़ा भाई नौकरी भी नहीं कर रहा था। ये सब देखकर बाऊ जी बहुत दुखी हो गए उन्होंने महसूस किया कि समय गया है कि वे अब अपने परिवार की तरफ ध्यान दें, दिल्ली अलवर जाना कम कर दिया और जालन्धर गाँधी कैंप में ही परिवार के साथ रहने लगे। बड़े भाई को एक छोटी-मोटी नौकरी दिलवाई ओर उसके बाद उसकी शादी करवा दी। दोनों बेटियों की भी शादी के लिए अच्छे वर ढूँढने के लिए बहुत भाग-दौड़ करनी पड़ी क्योंकि भगत बिरादरी में पढ़े-लिखे नौजवान तो नज़र ही नहीं रहे थे। भगत बुड्ढामल और भगत सरदारी लाल ने वर ढूँढने में काफी मदद की। आखिर दो पढ़े-लिखे और सरकारी नौकरी वाले लड़के मिल गए जिनके साथ बेटियों की शादी करा दी। बिरादरी की जिन लड़कियों के पिता 1947 में मारे गए थे उन लड़कियों की भी अपने खर्च से शादियाँ करवाईं। छोटा लड़का यानि कि मैं अभी काफी छोटा था इसलिए बाऊ जी ने मुझ पर खास ध्यान देना शुरू कर दिया और मुझे गाँधी कैंप से निकालकर शहर में एक कमरा किराए पर लेकर रहना शुरू कर दिया और मेरी पढ़ाई पर खास ध्यान देने लगे।
परिवार की भलाई के लिए उन्होंने आदर्श नगर जालन्धर में कोठी बनवाई ओर वहीं रहने लगे। श्री मोहन लाल जी जो लाला लाजपतराय जी के सहयोगी थे उन्होंने जालन्धर में एक टी.बी. हास्पिटल बनवाया। श्री मोहन लाल जी, जो बाऊ जी को अच्छे तरीके से जानते थे, ने बाऊ जी को हास्पिटल में सेवा करने के लिए आग्रह किया। बाऊ जी ने सुझाव मानकर टी.बी. अस्पताल में मानद (Honorary) काम करना शुरू कर दिया। इस बीच छोटे बेटे यानि कि मैंने अच्छी शिक्षा ग्रहण कर जालन्धर से डिग्री हासिल करके दिल्ली विश्वविद्यालय में दाखिला ले लिया। शिक्षा समाप्त करने के बाद मुझे अच्छी नौकरी मिल गई ओर मैं दिल्ली में ही रहने लगा। टी.बी. अस्पताल में काम करने के कारण बाऊ जी को टी.बी. का रोग लग गया। मैं उनको दिल्ली लाया और इलाज करवाया। इलाज होने के बाद वो जालन्धर वापिस चले गए और घर में ही आराम करने लगे।
सन् 1979 दिसंबर के महीने में बाऊ जी ने अन्तिम सांस ली और एक सूर्य अपनी बिरादरी को प्रकाश देकर सदा-सदा के लिए अस्त हो गया। तब तक परिवार भी ठीक तरह से बस चुका था। अब केवल उनके अच्छे कामों के साथ उनकी याद ही बाकी रह गई है।
 लेखक
(महिन्द्र पाल)
नोट: इस जीवनी को लिखने में बहुत से बुजुर्गों का सहयोग मिला जिन्होंने उस समय की घटनाओं के बारे में मुझे बताया। मैं उन सब का धन्यवाद करता हूँ।




BHAGAT GOPI CHAND


Bhagat Gopi Chand was born in village Poth, Sialkot now in Pakistan. He was self made man as he hailed from a poor family. He was one of the very few educated person of the Megh Samaj. With his self determination and commitment to the cause of upliftment of Megh community he became one of the pioneering figures in the entire Megh Samaj. He always propagated for the spread of education among the children of Megh families as he was of the staunch review that only through education, the standard of living of Megh Samaj can be raised. He heavily stressed on the point that Meghs should not consider themselves as downtrodden or lower strata of people. He was of the strong opinion that Meghs should develop self confidence and treat themselves as equal to highest hierarchy in the caste system.
    Bhagat Gopi Chand was exemplary figure in Megh Samaj who set examples for others to follow. This made the people of Megh Samaj to follow him and seek his advice on political, economic and social issues. The guidance and advice provided by Bhagat Gopi Chand stood in good stead in the lives of those Megh who sought guidance and as much more and more people liked him and bestowed confidence in him.
   In the pre-independence era Meghs were mostly dependent on daily earnings. So Bhagat Gopi Chand felt that the standard of living of Megh Samaj can be raised if they join government services. At that time Army service was the main and biggest service. But Meghs were not being recruited in the army as they were considered coward and weak by the Britishers. But he took up with the British authorities in the army and made representations and took Megh delegation to the authorities. He argued with British army authorities emphatically stating that Meghs are very strong at heart and body and are best suited to army service. It was after repeated delegations that British army accepted the arguments of Bhagat Gopi Chand and started allowing recruitment of Meghs in the army, though at the lower level. He was also recruited in the army as a test case.
   Bhagat Gopi Chand was brave and courageous man. To prove that Meghs were also strong and fit for army service, he performed his duties boldly and won the hearts of his army officers. During World War II he was assigned the duty along with a unit of the army at the North West Provincial area. They were at high altitude. At might thunder storm hit the area with heavy rain and cold. The captain ordered the entire company to retreat to the base camp. But Bhagat Gopi Chand refused to obey the orders stating that he would remain there to protect the heavy ammunition the company had stored. The captain threatened to refer him for court marshal if he (Bhagat Gopi Chand) did not retreat along with rest of the company. But Bhagat Gopi Chand did not budge. Next day the captain complained to his next officer for court marshal. As the weather had calm down, the officer wished to personally impact. The officer along with the reached the place where the company was posted on the previous might. The officer saw that Bhagat Gopi Chand was lying cold and fatigued. The officer highly appreciated the courage of Bhagat Gopi Chand and instead of court-marshalling him he recommended for award of “Muraba” (a large area of cultivable land). Thereafter, Bhagat Gopi Chand never looked back and continued his struggle for the cause of Megh community.
    When the British Government allowed home-rule for India, Bhagat Gopi Chand contested the election for MLA. The biggest drawback in Megh community was and is also existing in the present time is that there is lack of oneness in the community and there are elements who always try to pull the legs of the person who attempt to rise. This very negatively in the Megh community played its role then and Bhagat Gopi Chand lost the election. This did not deter Bhagat Gopi Chand to fight for the upliftment of Megh community.
           In 1947 when India got independence and was divided into Pakistan and India, Bhagat Gopi Chand played a major role in saving the lives of the people belonging to Megh community. During partition Muslim organizations were bent upon annihilating the Hindus from the soil of Pakistan. So they started wide spread killing of Hindus in all the cities and villages of Pakistan. Even the women children were not spared. Young Hindu women forced to convert to Islam and those who refused were subjected to torture and humiliation of worst type. Their private parts of body were cut after tearing their dignity.
Bhagat Gopi Chand was highly aggrieved when he heard of killing of Meghs and their women and children by Muslims. He thought of an idea to save the lives of Meghs. He met leaders of Muslim organization and told them that Meghs are not Hindus and therefore, their lives should be spared. This idea struck and the Muslim organization agreed. Bhagat Gopi Chand then distributed black bandsamong the Meghs and told them to bind the same around their arms. The Muslims stopped killing Meghs who wore black band on their arms. By this way Bhagat Gopi Chand succeeded in saving the lives of Meghs. Thereafter he planned as to how Meghs could be brought safely by train from Pakistan to India. He got distributed black bands among the Meghs to be worn by them on their arms. He sent messengers to different villages to tell them to pack up the luggages at night and be ready be picked up, in the morning, by trucks which he got arranged. He also sent his younger brother Sh. Ram Chand as a messenger for the purpose. But when Sh. Ram Chand was returning at night after visiting one village, he was spotted some Muslim group who chased him and killed him mercilessly. Even this loss of brother could not dampen the spirit of Bhagat Gopi Chand. He tied up with the railways and got one train stationed at the railway station. All the Meghs who were brought from various villages by trucks boarded the train. Majority of passengers of this train were Meghs and the army contingent escorted the train. The train stopped at each railway station, on its way, and carried the Meghs waiting at the station. This train was perhaps the only train which completed its voyage from Pakistan toIndia safely without even a single person having killed by Muslims throughout the journey. Bhagat Gopi Chand got arranged settlement of Meghs at various settlement colonies in tents initially.
        Bhagat Gopi Chand did not feel content with this rather he was always brooding over how to settle Megh families in respectable settlements and provide them with permanent source of earnings. He took up the case of Meghs refugees with the Indian government. On the basis of his past record, he was given the charge of rehabilitation of refugees by appointing in the Rehabilitation Department of Government of India. He then availed this opportunity effectively. He urged the Megh families who were living in tents under unhygienic and poor living condition to come to Alwar District of Rajasthan where they were to be allotted cultivableland for permanent and respectful rehabilitation. A large number of Megh families were taken to Alwar District free and were allotted cultivated land in the villages as ‘pucca pattas’ to be the owners of cultivable land allotted to them without charging even a single paisa. Many of the ignorant families opposed this move of Bhagat Gopi Chand and charged him for uprooting them from then tented settlements. They even abusive songs derogatory to Bhagat Gopi Chand. One line of a song was “…..Alwar jaan waalio bera rur jaye Gopi da….” This also did not dampen the spirit of Bhagat Gopi Chand and he continued with the rehabilitation scheme because he knew that Meghs were ignorant. With the passage of time the Megh families who settled in villages of Alwar District and other adjoining areas started getting the taste of fruit of that rehabilitation. They became self dependent could earn lot of money from cultivation of their own land. They could meet all the requirement of their families and could still save money for future. They used to recollect the time when they were living in tents in Punjab and were struggle daily for work to earn enough to both ends meet. In Rajasthan villages they felt proud to be owner of cultivable land. Now they have become rich and many families feel proud to be called as Jats. They have forgotten their past but still remember Bhagat Gopi Chand for the good he had done for them and showering lot of praise on him treating him as Messiah for them.
However, Bhagat Gopi Chand did not forget the Megh families who opt to remain back in tented accommodation. He saw men struggling for daily work and their women folk work in fields of others, he then concentrated on them. At that time government and private jobs were rare and while Meghs were mostly illiterate, it was all the more difficult to look jobs them. He then approached the Military establishment at Jalandhar and requested the authorities to provide the Meghs with unskilled, semi-skilled jobs in the establishment. The authorities agreed and recruited some Megh males on unskilled jobs to be trained for skilled jobs as well. Meanwhile he put the case before the government to provide alternative and better accommodation other than tents as the Meghs were leading miserable life in tents. After lapse of sometime the government provided kucha houses called barracks to Meghs.
      During the fight for the cause ofMeghs, Bhagat Gopi Chand remained mostly in the transit and therefore could not devote his time to his family at Jalandhar. Even the work of admission of his children in the schools was done by his devout followers. After completing the work of rehabilitation of Meghs and subsequent retirement that he started living with his family at Jalandhar. Then he guided his children for proper education.
      A man who spent his hectic life could not remain idle for long. Bhagat Gopi Chand started serving on small honorarium in Gulab Devi, T B Hospital at Jalandhar. There also he helped patients of Megh Community to get free treatment from the hospital. While serving in the T B Hospital, he also got infection. He was brought to Delhi, by his son, and got him admitted in a renowned T B Hospital. After treatment for a few months, he was discharged from the hospital with the direction to take medicine regularly for another year and then he returned to Jalandhar. But ill luck would have been he did not take care to take medicine regularly and also did not take precaution as advised by the doctor and left for heavenly abode on 14 Oct 1979. Thus the era of Bhagat Gopi Chand came to an end, but not before giving honorable life to the people of MeghSamaj. He has left the world but not the hearts of Meghs who will always feel indebted to him for what he has done for them.

Contributed by: Mohinder Paul (son), Neha Bhagat (grand daughter) and Shashank Bhagat (grand son)


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